Ayodhya singh upadhyay ki kavita kundra

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कविताएं 'एक तिनका है बहुत तेरे लिए'

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अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने घर पर रहकर ही उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया था. उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधा जैसे- काव्य, उपन्यास, आलोचना, ललित निबन्ध, नाटक और संपादन आदि में उल्लेखनीय कार्य किया.

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कृति ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य कहा जाता है.

खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में स्थापित करने वाले प्रमुख कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद में सन 1865 में हुआ था. उन्होंने घर पर रहकर ही उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया था. उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधा जैसे- काव्य, उपन्यास, आलोचना, ललित निबन्ध, नाटक और संपादन आदि में उल्लेखनीय कार्य किया.

उनकी कृति ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य कहा जाता है. उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति के रूप में कार्य किया.

सन 1889 में हरिऔध जी कानूनगो बन गए. 1931 में अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया.

अध्यापन कार्य से मुक्त होने के बाद हरिऔध जी अपने गांव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे. सन् 1947 में निजामाबाद में उनका निधन हो गया. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं-

तिनका
मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ
एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ
एक तिनका आंख में मेरी पड़ा.

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा
लाल होकर आंख भी दुखने लगी
मूंठ देने लोग कपड़े की लगे
ऐंठ बेचारी दबे पांवों भगी.

जब किसी ढब से निकल तिनका गया
तब ‘समझ’ ने यों मुझे ताने दिए
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा
एक तिनका है बहुत तेरे लिए.

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एक बून्द
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी.

मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में,
चू पड़ूंगी या कमल के फूल में.
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुंह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी.

लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूंद लौं कुछ और ही देता है कर.

फूल और कांटा
हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता.

मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएं हैं बही
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं.

छेदकर कांटा किसी की उंगलियां,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भंवर का है भेद देता श्याम तन.

फूल लेकर तितलियों को गोद में
भंवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला.

है खटकता एक सबकी आंख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर.

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क्या से क्या
क्यों आंख खोल हम लोग नहीं पाते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं
थे हमीं उजाला जग में करने वाले
थे हमीं रगों में बिजली भरने वाले
थे बड़े वीर के कान कतरने वाले
थे हमीं आन पर अपनी मरने वाले
हम बात बात में अब मुंह की खाते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं.

था मन उमंग से भरा, दबंग निराला
था मेल जोल का रंग बहुत ही आला
था भरा लबा-लब जाति-प्यार का प्याला
देशानुराग का जन जन था मतवाला
ये ढंग अब हमें याद भी न आते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं.

थे धीर वीर साहसी सूरमा पूरे
थे लाभ किये हमने हीरों के कूरे
थे सुधा भरे फल देते हमें धातूरे
छू हम को पूरे बने अनेक अधूरे
अब अपने घर में आग हम लगाते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं.

थी विजय-पताका देश देश लहराती
धौंस धुकार थी घहर घहर घहराती
हुंकार हमारी दसों दिशा में छाती
धरती-तल में थी धाक बंधी दिखलाती
अब तो कपूत कायर हम कहलाते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं.

स्वर्गीय दमक से रहा दमकता चेहरा
दिल रहा हमारा देव-भाव का देहरा
था फबता गौरव-हार गले में तेहरा
था बंधा सुयश का सिर पर सुन्दर सेहरा
अब बना बना बातें जी बहलाते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं.

सुख-सोत हमारे आस पास बहते थे
वांछित फल हम से सकल लोक लहते थे
सब हमें जगत का जीवन धान कहते थे
देवते हमारा मुंह तकते रहते थे
अब पांव दूसरों का हम सहलाते हैं
क्या रहे और अब क्या बनते जाते हैं.

(सभी कविता साभार- कविता कोश)

First Published :

June 09, 2022, 12:55 IST

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